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आसमां के नीचे गुजारने को विवश है राजस्थान के उंट व भेड चारक।
पिटोल से निर्भयसिंह ठाकुर की रिपोर्ट

श्याम त्रिवेदी
Last Updated 2024-01-19T08:08:17Z


पिटोल से निर्भयसिंह ठाकुर की रिपोर्ट

खानाबदोश जिंदगी खुले आसमां के नीचे गुजारने को विवश है राजस्थान के उंट व भेड चारक।

दर दर साथ भटकने वाले बच्चों का भविष्य है उनकी खास चिंता।

पिटोल - एक गीत की वो पंक्तियां ‘‘ जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं कोई जाना नही ...... शब्दशः इन पंक्तियों को चरितार्थ करते हुवे राजस्थान से निकल कर देश के अलग अलग राज्यों में उंट ओर भेडों के काफिले के साथ खनाबदोश जिंदगी गुजारने वाले रबारी समाज के मजदूरों के लिये जिंदगी का कठिन सफर दिखाई देता है। सडकों व खेत खलिहान में इन दिनों देखने को मिल रहे उंटो व भेडों के काफिले उन्हें लेकर गांव गांव घूमने वाले परिवार जनों के लिये पेदल चल कर गुजरने वाला सफर किसी चुनोति से कम नहीं। आज यहां तो कल कहां शायद यही है उनकी जिंदगी का असल सफर है ! 

उक्त जुबानी पाली जिले से गुजरात होते हुवे म.प्र. के पिटोल में डेरा डाले रबाडी समाज के विष्णु भाई ने बताया कि सरकार से ऐसा कोई रोजगार नहीं मिल पाता है जिससे कि वे अपने परिवार का ठीक से पालन पोषण कर सके। मजबूरन वे अपने सेठ साहुकारों के यहां दिन दाहडी पर उनके उंटों व भेडों को लेकर गांव गांव घूमकर उन्हें चराते हुवे उनका पालन पोषण करते है। राजस्थान रेतिला होने के कारण खाने को बहुत कुछ नहीं है। ऐसे में वे पूरे साल उन्हें लेकर कभी इस खेत में तो कभी उस खेत में रास्ते में पडने वाले पेडों की पत्तियों व खेतों की घांस खिलाकर पोषण करते है। ऐवज में उन्हें मवेशियों के मालिकों से 15 से 20 हजार रुपऐ मासिक प्राप्त हो जाता है जिससे वे अपने परिवार का खाने का प्रबंध करते है। 

हर मौसम होता है चुनोति भरा।
विष्णु भाई ने बताया कि खुले आसमां के नीचे होता है डेरा ऐसे में उनके लिये हर मौसम चाहे बारिश हो या गर्मी, तेज चलती सर्द हवाओं के बीच रात गुजारना उनके व उनके स्वजनों के लिये किसी चुनौति से कम नहीं होता। किंतु पेट की आग के पिछे यह सब उन्हें बोना लगने लगा है। कारण कि इस तरह का जीवन जीना उनके लिये नीयति बन चुका है। 35 वर्षिय विष्णु भाई ने बताया कि गत 20 सालों से वे अब तक कई राज्यों में जाकर गांवों की खाक छान चुके है। 15 वर्ष की उम्र में पहले माता पिता के साथ इस तरह के काम में उनका हाथ बटाता था ओर अब उनके बच्चे भी साथ में घूम रहे है। जो कि उनकी मजबूरी है। पढाई लिखाई कर नहीं पाते ऐसे में हम कैसे उनके सुखद भविष्य की कल्पना कर सकते है। शासन को चाहिये कि वे उनके इस तरह के जीवन से निजात दिलाने के लिये कोई योजना लेकर आऐ जिससे उनका तो ठीक उनके नौ निहालों का भविष्य संवर जाऐ। 

आमदनी का ऐसा भी होता है जरीया।
मालिकों से मिलने वाली मजदूरी के अलावा हर डेरे पर आमदनी का जरीया बन जाता है। खेत मालिक इस काफिले को रात भर अपने खेतों में बैठाने के लिये इन्हें या तो नगद राशि देते है या बदले में अनाज देते है। उंटों व भेडो के मल से उपजाउ खाद बनती है। किसान ऐसा मानते है कि इनसे बनने वाली खाद में उर्वरा शक्ति अधिक होती हे। इससे किसान को भी फायदा हो जाता है व उन्हें मिल जाता है दो वक्त की रोटी के लिये अनाज। 
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