आधुनिक भारत में धारदार हथियार के लाइसेंस का आदेश जारी करने का पहला मामला।
कलेक्टर को दिए प्रथम आवेदन में झाबुआ आने-जाने को लेकर आत्मरक्षा हेतु की थी धारदार हथियार की मांग।
आर्म्स एक्ट में होने वाले संभावित बदलाव की जद में आ सकते हैं जनजाति समाज के पारंपरिक हथियार तीर कमान एवं फालिया।
पिटोल। जिन धारदार हथियारों को लेकर अब तक कोई लाइसेंस जारी नहीं किए गए उन धारदार हथियारों को लेकर हजारों की संख्या में मामले आर्म्स एक्ट में पंजीबद्ध होकर न्यायालय में गए किंतु इन धारदार हथियारों के विधिवत लाइसेंस लेने की प्रक्रिया में इंदौर निवासी सुभाष सिंह तोमर को 7 वर्ष लग गए तब कहीं जाकर उन्हें धारदार हथियार के रूप में तलवार खुखरी वह चाकू के लाइसेंस का आदेश पारित किया गया !अकेले प्रदेश के झाबुआ जिले की है बात करें तो यहां आर्म्स एक्ट में सैकड़ो की संख्या में मामले दर्ज हुए हैं!
भारत-वर्ष में ‘दुरूह’ कानूनी प्रावधानों और मैदानी वास्तविकताओं में आमूलचूल बदलावों की आवश्यकता को देखते हुए खास तौर पर “आर्म्स एक्ट” इन दिनों चर्चाओं में है, जिसके नाम पर आर्म्स एक्ट से अनजान लोगों को बड़े पैमाने पर मामले दर्ज कर जेल की सलाखों के पीछे डाला जाता है आग्नेय अस्त्रों (रिवाल्वर, गन, बन्दूक वगैरह) का लाइसेंस तो सिफ़ारिशों और मोटी रकम देकर मिल जाता है और लाइसेंसधारी भी खुले-आम उनका प्रदर्शन करते देखे जा सकते हैं! नेता और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की चर्चा तो बेमानी है! फायर आर्म्स के उपयोग-दुरूपयोग के अनगिनत किस्सों के बीच मुद्दा ये है कि क्या पारंपरिक हथियारों जैसे कि तलवार, खुखरी, चाकू और इस तरह के नुकीले अस्त्रों को अपने पास रखने और उनका इस्तेमाल करने में कौन-सी विधिक प्रणालियां आड़े आती हैं? इस अत्यंत जटिल प्रसंग का राग-सुराग-समाधान तलाशने मैं भूमिका निभाई है एक साधारण मनुष्य द्वारा ! इंदौर से अपने झाबुआ आने-जाने को लेकर सुरक्षा का भाव आया एवं धारदार हथियार का लाइसेंस लेने की प्रक्रिया आरंभ की 7 वर्ष की मैराथन मेहनत के बाद विभिन्न प्रशासकीय एवं न्यायिक पेचीदगियों के बीच धारदार हथियार का लाइसेंस प्राप्त करने वाला यह शख्स पैसे से शिक्षक है !
इंदौर महानगर के कई ऐसे मुद्दे जिस पर कोई आसानी से हाथ नहीं डालता ऐसे मुद्दों को निडरता के साथ न्यायालय के शरण में ले जाने वाले इस शख्स को बात-बात में धमकाया गया और प्रताड़ित भी किया गया! लेकिन उसे लगा कि ‘लॉन्ग रन’ में तलवार, चाकू जैसे धारदार हथियारों का सहारा लगेगा! 6 इंच लंबाई और 2 इंच ब्लेड चौड़ाई या किसी भी नुकीले चाकू से अधिक धारदार हथियार लेकर चलने में जो बाधाएं आती हैं, वो उनसे लगातार बावस्ता होते रहे हैं!
लाइसेंस प्राप्त करने की अपनी आत्मकथा में सुभाष सिंह ने बताया कि भारत में धारदार हथियारों मैं खास तौर पर चाकू और तलवारों के लाइसेंस और विनियमन को लेकर जटिल कानूनी और प्रशासनिक उलझन पैदा हो गई है. “मैंने दूरदराज के फील्ड वर्क के दौरान व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए चिंतित होकर धारदार हथियार के लिए लाइसेंस मांगा. जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय में मौखिक रूप से पूछताछ करने पर पता चला कि प्रशासन धारदार हथियारों के लिए लाइसेंस जारी नहीं करता है और ऐसे लाइसेंस के लिए कोई स्थापित प्रक्रिया भी नहीं है, जबकि गजट अधिसूचना (6312-6552-II-B, दिनांक 22 नवंबर, 1974) लाइसेंस अनिवार्य करता है.”
आगे सुभाष सिंह सवाल उठाते हुए बताया कि जब प्रमुख राजनीतिक नेताओं को बिना किसी कानूनी परिणाम के सार्वजनिक रूप से धारदार हथियार चलाते देखा गया, तो आम नागरिकों को क्यों कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है वे बताते हैं, “सूचना के अधिकार अधिनियम” के तहत एक आवेदन दायर किया. प्रथम अपीलीय अधिकारी के आदेश के बावजूद आवश्यक जानकारी प्रदान नहीं की गई, जिसके कारण उन्हें राज्य सूचना आयोग (एसआईसी), भोपाल का दरवाजा खटखटाना पड़ा. एसआईसी के हस्तक्षेप से पता चला कि इंदौर संभाग में 1967 और 1981 में धारदार हथियारों के लिए लाइसेंस जारी किए गए थे. दिल्ली में गृह मंत्रालय (एमएचए) ने स्पष्ट किया कि शस्त्र अधिनियम “धारदार हथियारों” के लिए एक विशिष्ट परिभाषा प्रदान नहीं करता है.
सुभाष ने अपने बचपन के मित्र और अधिवक्ता विशाल श्रीवास्तव के माध्यम से इंदौर उच्च न्यायालय में नि:शुल्क कानूनी सहायता के लिए एक रिट याचिका दायर की, जिसे शुरू में एकल पीठ द्वारा जनहित याचिका में बदल दिया गया. बाद में डबल बेंच ने इसे व्यक्तिगत रिट याचिका के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया और इसे ‘लिबर्टी’ के साथ खारिज कर दिया. इसके बाद सुभाष ने नि:शुल्क कानूनी सहायता के लिए एक और रिट याचिका दायर की, जिसके परिणामस्वरूप एडीएम (शस्त्र) को चार महीने के भीतर आवेदन पर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया. कलेक्टर कार्यालय में आवेदन प्रस्तुत करने पर पता चला कि धारदार हथियार लाइसेंस के प्रसंस्करण के लिए ऑनलाइन प्रणाली में कोई प्रक्रिया उपलब्ध नहीं है. अधिकारियों ने गृह मंत्रालय से संपर्क करने की सलाह दी. “इन लाइसेंसों को जारी करने में एक महत्वपूर्ण बाधा धारदार हथियारों पर विशिष्ट पहचान संख्या की कमी है, क्योंकि उनका निर्माण अनियमित है और अंकन के लिए कोई मानक मौजूद नहीं है,” जैसा कि सुभाष ने बताया.
हाईकोर्ट के दूसरे आदेश के अनुपालन में सुभाष के आवेदन पर प्रशासन हरकत में आया, लेकिन पुलिस सत्यापन में स्वच्छ चरित्र रिपोर्ट होने के बावजूद संबंधित डीसीपी ने ‘अनुशंसित नहीं’ का नोट लगा दिया. इस पर भरोसा करते हुए एडीएम ने भी लाइसेंस देने से इनकार कर दिया. एडीएम के आदेश से व्यथित होकर सुभाष ने इंदौर के संभागीय आयुक्त की अदालत में अपील दायर की. दलीलों को गहराई से सुनने के बाद आयुक्त ने हाल ही में उन्हें धारदार हथियार का लाइसेंस देने का आदेश पारित किया. शायद यह आधुनिक भारत में धारदार हथियार के लिए लाइसेंस जारी करने का पहला मामला है!
सुभाष के अनुसार, मौजूदा कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियों के कारण धारदार हथियारों के नियमन में स्पष्टता और स्थिरता की तत्काल आवश्यकता है. यह मामला हथियारों के नियमों के प्रवर्तन में विभिन्न मुद्दों और विसंगतियों और प्रक्रियात्मक खामियों को दूर करने के लिए व्यापक सुधारों की आवश्यकता को उजागर करता है. उन्होंने कहा, “यह हथियार अधिनियम में विसंगति का पता लगाने के लिए 7 वर्षों तक चली अथक कानूनी लड़ाई का परिणाम है.” उनका मानना है कि अगर सरकार धारदार हथियार के लाइसेंसिंग प्रक्रिया के बारे में सुधारात्मक कार्रवाई करती है, तो निर्माता और लाइसेंस चाहने वाले आम लोगों के लिए लाइसेंसिंग प्रणाली लागू करने से सरकारी खजाने में पर्याप्त मात्रा में राजस्व आएगा.
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